Archive | इतिहास

जेलों में यातनाऐं सहकर आजादी की दीप शिखा को जलाये रखा

Posted on 11 August 2012 by admin

उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूं से जलते है ये चिराग-ए-वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।
परतन्त्रता की बेड़ीयों से मुक्त कराने के लिये बुन्देलखण्ड के रणबाकुरे स्वतंत्रता सेनानियों ने इन्दौर, इलाहाबाद, कानपुर, लाहौर और अण्डमान निकोबार द्वीप की जेलों में यातनाऐं सहकर आजादी की दीप शिखा को जलाये रखा। इन्दौर में होलकर के खिलाफ प्रजा मण्डल के माध्यम से जंग-ऐ-आजादी की लड़ार्इ ललितपुर जनपद के ननौरा ग्राम के निवासी पंडित बालकृष्ण अगिनहोत्री एवं उनके छोटे भार्इ प्रेम नारायण ने लड़ी तो पंडित परमानन्द ने राठ से चलकर अण्डमान की जेलों तक आजादी का बिगुल फूका लेकिन इन्ही सबके बीच एक सहयोगी की भूमिका निभाने वाला ललितपुर का परमानन्द मोदी जीवन के अनितम पड़ाव पर अपनी पहचान के लिये दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर है। स्वधीनता सेनानियों ने अपना खून पसीना बहाकर आजादी तो दिलार्इ लेकिन इस आजादी  ने स्वधीनता सेनानियों को ही भूला दिया। आजादी की लड़ार्इ में जिले के परमानंद स्वधीनता सेनानी का दर्जा तक नही दिया गया। उम्र के अनितम दौर पर पहुंच चुके स्वाधीनता सेनानी ने अंतत: हताश होकर राष्ट्रपति को मर्म स्पर्शी प्रार्थना पत्र भेजकर अपनी व्यथा को बताया है।
किराये के घर में रहकर आर्थिक तंगी के थपेड़े झेल रहे स्वधीनता सेनानी परमानंद मोदी की कड़क आवाज से अब भी उनके जोश का अंदाजा लग जाता है, लेकिन जिस आजादी की खातिर उन्होंने न्यौछावर कर दिया उस आजादी ने उन्हें स्वधीनता सेनानी तक का दर्जा नही दिया। गृह मंत्रालय के एक पत्र ने उनके सपनों को तार-तार कर दिया। वाकया पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर 1985 मेें विज्ञापित हुए एक विज्ञापन से जुड़ा है। जिसके द्वारा किन्ही कारणों से स्वधीनता संग्राम सेनानी होने का दर्जा पाने से वंचित करने का मौका दिया गया था। आवेदन की अंतिम तिथि 30 जून 1985 मुकर्रर की गयी थी। सेनानी ने अपना आवेदन 18 जून को ही रजिस्डर्ड डाक द्वारा भेज दिया था, जो गृह मंत्रालय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डिवीजन गृह मंत्रलाय में 25 जून को ही पहुंच गया था। इसके उपरांत भारत सरकार के सचिव ने पत्रांक नम्बर 32882455-एन 2 के माध्यम से बताया कि 28 जुलार्इ 85 को प्राप्त आवेदन पत्र में स्वधीनता संग्राम सेनानी की मान्यता का सपना झूलता रह गया। स्वधीनता सेनानी का तो यहां तक कहना है कि उनसे एक कार्यालय मेंं धन की मांग की गयी थी। पूरा कर पाने मंें असमर्थ रह पाने के चलते ही उनकी आखिरी ख्वाहिश अपूर्ण रह गयी।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परमानंद मोदी पुत्र नंदलाल मोदी हाल निवासी सरदारपुरा ललितपुर किसी परिचय के मोहताज नही है। वह जिस उम्र में आजादी की लड़ार्इ में कूदे थे, उस उम्र मेंं बच्चे खेलने कूदने मेंं ही व्यस्त रहते है। मोदी ने पहले गांधी के आंदोलनों में काम किया, इसके बाद वह नेताजी सुभाष चंद बोस की आजादी हिंद फौज मेंं जुट गये। सन 1942 मेंं बनारस युनीवर्सिटी बंद हो गयी थी। वहां से गुलाबचंद ललितपुर मेंं आये थे। उन्होेंने आंदोलन को गति देने के उददेश्य से परमानंद मोदी को डाकखाना जलाने का काम सौंपा था। अलावा इंगलैण्ड में निर्मित कपड़े को बेचने वाले दुकानदार की दुकान में भी आग लगाने का काम मोदी ने किया था। जो भी दायित्व सौंपा गया वह एक पर एक दायित्व निभाते चले गये। रात मेंं पैम्फलेट छपवाने मेंें सहयोग के अलावा चिपकाने का कार्य भी परमानंद मोदी के जिम्मे था। मोदी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथगोला बनाकर कोतवाली ललितपुर पर फेका था। इस सम्बंध मेंं वह दो बार पकड़े गये। इतनी पिटार्इ हुर्इ कि वह बेहोश तक हो गये थे। बाद में वरिष्ठ साथियों के सुझाव के चलते वह एक वर्ष के लिए भूमिगत हो गये। लगातार जंगलों मेंं खाक छानते रहे, फिर भी आजादी का जज्बा नहीं गंवाया। वह आजादी के लिए स्वधीनता संग्राम सेनानियों तक संदेश पहुंचाने का कार्य करते रहे। 1942  में ही कमिश्नरी झांसी पर तिरंगा झण्डा चढ़ाने वाले सेनानी को अंग्रेजों ने गोली मार दी थी। इस गोली ने झण्डा फहराने वाले सेनानी को मौत की नीद सुला दिया था। वहीं छर्रे निकलकर परमानंद मोदी के बाये पैर मंें भी लगे थे। जिनके चिन्ह आज भी उनके पांव मेंं बने हुए है। उस समय चिकित्सालय मंें दाखिल होकर इलाज कराना सम्भव नहीं था। इस वजह से मोदी अपनी रिश्तेदारी मेंं भाग गये। देशी इलाज के द्वारा उनके पाव ठीक हुए परमानंद मोदी ने राष्ट्रपति को भेजे ज्ञापन मेंं बताया कि उन्होंने कभी भी सरकार के ऊपर अतिरिक्त बोझ रखने का निर्णय नहीं लिया। यही वजह है कि वह स्वधीनता संग्राम मेंं अहम भूमिका निभाते रहे। इसके बावजूद भी इस कार्य के बदले किसी किस्म का लाभ हासिल करना उन्होंने मुनासिब नही समझा। लेकिन जब 1985 मेंं विज्ञापन प्रकाशित हुआ तब मोदी को लगा कि उम्र के पड़ाव को देखते हुए आवेदन करना ही उचित है, लेकिन सरकारी मशीनरी की खराबी के चलते उनका आखिरी सपना भी टूटकर बिखर गया। हर जगह उन्हें अपने स्वधीनता संग्राम सेनानी होने की पहचान बतानी पड़ रही है।उनके पास केवल स्मृतियां व फिरंगियाें द्वारा शरीर दिये गये जख्म ही शेष रह गये है। इसके अलावा कुछ भी साथ नही है। परमानंद मोदी के पास आजादी हिंद फौज द्वारा जारी 15 अगस्त 1947 का वह सिक्का भी है जो केवल आजाद हिंद फौज के सिपाहियां को ही दिया गया था। इस सिक्के मेंं अविभाज्य भारत का नक्शा बना हुआ है। परमानंद मोदी को स्वधीनता सेनानी होने के किसी साक्ष्य की जरूरत नही है, लेकिन जिस तरह की जरूरतें सरकारी मशीन द्वारा बतायी जा रही है, उनकी सुन-सुनकर बूढ़े मन को काफी ठेस पहुंचती है। वह बोझिल मन से कहते है कि इस तरह के राज्य की तो उन्होेंने कल्पना तक नहीं की थी। जिस आजादी के लिए उन्हाेंने दिन रात भूखे प्यासे रहकर संघर्ष किया, उस आजादी ने उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहंुंचने के पश्चात भी ठुकराने का कार्य किया। वह बताते है कि स्वधीनता संग्राम से जुड़ी निशानियों को अपने साथ रखेंगे। मोदी के अधिकांश साथी दिवंगत हो चुके है, वह भी मोदी को स्वधीनता सेनानियों के समान दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे, लेकिन कही से भी कोर्इ उम्मीद की किरण दिखायी नही पड़ी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बृजनंदन किलेदार, अहमद खां, बृजनंदन शर्मा, मथुरा प्रसाद वैध के अलावा हरीकृष्ण देवलिया ने भी मोदी के स्वधीनता संग्राम सेनानी होने का प्रमाण पत्र दिया है।
वक्त ने किये इतने सितम।
हमदम न रहे ।
बात करे तो किससे करें।
अपने ही जब हो बेरहम।।
एक आंख मोतियाबिंद के कारण कमजोर हो गयी है। सेनानी ने लिखा कि कमाना हिम्मत से बाहर है। भीख मांगना भी बस की बात नही है। उन्होंने बताया कि वह हर तरफ से निराश हो चुके है। पिछले एक माह से लगातार बीमार है। भोजन की व्यवस्था भी बड़ी मुशिकल से हो पाती है। इस हाल मेंं वह क्या करें, राष्ट्रपति ही सही मार्ग बताकर उनकी बोझिल बन चुकी जिदंगी को उम्मीद की किरणें दिखायें यह सोच-सोच कर अपने दिन काट रहे है।

-सुरेन्द्र अगिनहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर. बिलिडंग
विधानसभा मार्ग, लखनऊ
मो0: 9415508695

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इंदौर की यादों में बसे बापू

Posted on 02 October 2009 by admin

इंदौर- महात्मा गांधी पहली बार 29 मार्च 1918 में हिंदी साहित्य समिति के मानस भवन का शिलान्यास और दूसरी बार 20 अप्रैल 1935 में इसी भवन का उद्घाटन करने आए थे। समिति की स्थापना बापू की ही प्रेरणा से 1910 में हो गई थी।

समिति द्वारा 1918 में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें अधिवेशन की अध्यक्षता गांधीजी ने की थी। समिति की जानकारी के मुताबिक सम्मेलन में आने से पहले उन्होंने समिति के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. सरजूप्रसाद तिवारी को एक पत्र लिखकर कुछ सवालों के उत्तर राष्ट्र से पूछने को कहा था।

बापू के ही शब्दों में : भाई सरजूप्रसादजी, आप इन दो प्रश्नों के उत्तर मान्य पुरुषों से तथा विद्वानों से मंगाकर रख छोड़ना ये दो प्रश्न हैं- हिंदी राष्ट्रभाषा होना चाहिए या नहीं, हमारी मातृभाषाओं में सर्वशिक्षा देना शक्य है या नहीं। गांधीजी की आज्ञा के मुताबिक लोगों से पूछा गया और इसी आधार पर उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की समिति की मांग का समर्थन किया था। बाद में संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति दी।

शिलान्यास के दौरान महात्मा गांधी काठियावाड़ी वेशभूषा में आए थे। इस दौरान उनकी काठियावाड़ी पगड़ी आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। सन् 1935 में महात्मा गांधी तीन दिन शहर में रहे थे। 20 से 23 अप्रैल तक वे यहां ठहरे थे। इस दौरान समिति का 24वां हिंदी साहित्य सम्मेलन हुआ था जिसमें गांधीजी सभापति थे। उस वक्त के बिस्को पार्क (नेहरू पार्क) में आयोजित सम्मेलन गांधीजी ने फिर राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की तरफदारी की थी।

सम्मेलन में महाराजा यशवंतराव होलकर ने इंदौर में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की थी। समिति में महात्मा गांधी यातायात की परवाह किए बिना बैलगाड़ी में बैठकर आए थे।

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Mother Teresa remembered

Posted on 06 September 2009 by admin

ALLAHABAD- The RC Diocese of Allahabad remembered Mother Teresa on her 12th death anniversary on Saturday by offering special prayers and
presenting songs, dances and skits, depicting her life.

The programme began with a skit on the life and mission of Mother Teresa, presented by SJ regional seminary. Bishop Isidore Fernandes welcomed chief guest Banwari Lal Sharma and others.

The bishop urged the gathering to follow the footsteps of Mother Teresa and spread the message of love and peace. The Mother was a true example of an ideal teacher, he added. A colourful dance was presented the tiny tots of Shishu Bhawan.

The message of peace was delivered from various religious scriptures. J Mehrotra recited a message from Shrimand Bhagwatgita, Mohammad Ashraf from the Holy Quran, Rosaline Philip read from the Holy Bible, Ichcha Dhameja narrated extracts from Guru Granth Sahib, Urmila Jain read the message of peace from Kalpasutra and Mary Samuel offered a special prayer. Sharma paid glowing tributes to Mother Teresa and recalled her services to the mankind.

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राजीव गांधी की 65वीं जयंती

Posted on 20 August 2009 by admin

नई दिल्ली- पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 65वीं जयंती पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित अन्य नेताओं ने गुरुवार को यहां वीरभूमि पर उन्हे श्रद्धांजलि अर्पित की।

इस मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उनके बेटे राहुल गांधी, बेटी प्रियंका और दामाद राबर्ट वाड्रा भी मौजूद थे।

दिवंगत नेता की याद में सर्वधर्म प्रार्थना का आयोजन किया गया। इस अवसर पर लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार भी मौजूद थीं। राजीव गांधी की जयंती देशभर में सद्भावना दिवस और अक्षय ऊर्जा दिवस के रूप में मनाई जाती है। इस अवसर पर देश भर में कई कल्याणकारी कार्यक्रम आयोजित कि गए।

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तारेगना में थी आर्यभट्ट की वेधशाला

Posted on 22 July 2009 by admin

पटना -माना जाता है कि बिहार के पटना जिले के मसौढ़ी सब डिविजन के  तारेगना में ही गुप्तकाल के महान अंतरिक्ष विज्ञानी आर्यभट्ट (476 ईस्वी) की वेधशाला थी। गौरतलब है कि आर्यभट्ट ने वेदों के विपरीत कहा था, सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है।

आसपास के क्षेत्रों में शोध कर चुके सिद्घेश्वर नाथ पांडेय का कहना है कि तारेगना के पूर्व में 70 फुट की एक मीनार थी। इसी मीनार पर आर्यभट्ट की वेधशाला थी और यहीं बैठकर वह अपने शिष्यों के साथ मिलकर ग्रहों की चाल का अध्ययन किया करते थे। इसी वजह से इस जगह का नाम तारेगना पड़ा।

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45वीं पुण्यतिथि पर याद किए गए नेहरू

Posted on 28 May 2009 by admin

नई दिल्ली- राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई नेताओं ने बुधवार को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को उनकी 45वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि दी। उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शांति वन में नेहरू स्मारक पर श्रद्धासुमन अर्पित किए जहां धार्मिक पुस्तकों से पवित्र शब्दों का उच्चारण भी किया गया।

रक्षा मंत्री एके एंटनी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा और पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल दिवंगत नेता को पहले पहल श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों में शामिल थे। इनके अतिरिक्त केंद्रीय मंत्री वायलर रवि, मुरली देवड़ा, मीरा कुमार, वीरप्पा मोइली, गुलाम नबी आजाद और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी इस अवसर पर मौजूद थीं। वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं मोती लाल वोरा, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अश्विनी कुमार, पवन कुमार बंसल, सुबोध कांत सहाय, सीसराम ओला, जेपी अग्रवाल और जगदीश टाइटलर ने भी प्रथम प्रधानमंत्री को श्रद्धांजलि दी।

नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारुक अब्दुल्ला, योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया, तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर और बूटा सिंह ने भी नेहरू को श्रद्धांजलि दी। स्मारक परिसर में एक सर्वधर्म प्रार्थना सभा का भी आयोजन किया गया। सभा के अंत में नेहरू का एक भाषण सुनाया गया। नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 और निधन 27 मई 1964 को हुआ था

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आजादी के लिए सबकुछ दांव पर लगाया

Posted on 05 May 2009 by admin

नई दिल्ली- देश की आजादी आंदोलन में मोतीलाल नेहरु एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने न केवल अपनी जिंदगी की शानोशौकत को पूरी तरह से ताक पर रख दिया बल्कि देश के लिए परिजनों सहित अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया।

मोतीलाल नेहरु अपने दौर में देश के चोटी के वकीलों में थे। वह पश्चिमी रहन-सहन, वेषभूषा और विचारों से काफी प्रभावित थे। लेकिन बाद में वह जब महात्मा गांधी के संपर्क में आए तो उनके जीवन में आमूलचूल परिर्वतन आ गया। कश्मीरी पंडितों की महान विभूतियों के बारे में पुस्तकें लिख चुके लखनऊ के बैकुंठनाथ शर्गाह ने बताया कि पंडित मोतीलाल नेहरु अपने जमाने के शीर्ष वकीलों में शामिल थे। उस दौर में वह हजारों रुपये की फीस लेते थे। उनके मुवक्किलों में अधिकतर बड़े जमींदार और स्थानीय रजवाड़ों के वारिस होते थे। लेकिन वह गरीबों की मदद करने में पीछे नहीं रहते थे।

उन्होंने बताया कि पंडित मोतीलाल की कानून पर पकड़ काफी मजबूत थी। इसी कारण से साइमन कमीशन के विरोध में सर्वदलीय सम्मेलन ने 1927 में मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसे भारत का संविधान बनाने का जिम्मा सौंपा गया। इस समिति की रिपोर्ट को नेहरु रिपोर्ट के बारे में जाना जाता है।

मोतीलाल का जन्म छह मई 1861 को दिल्ली में हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा कानपुर और बाद में इलाहाबाद में हुई। शुरुआत में उन्होंने कानपुर में वकालत की। लेकिन जब वह महज 25 वर्ष के थे तो उनके बड़े भाई का निधन हो गया। इसके बाद मोतीलाल ने इलाहाबाद हाईकोर्ट आकर प्रैक्ट्रिस शुरू कर दी।

मोतीलाल के घर के चिराग जवाहरलाल नेहरु 1889 में पैदा हुए। बाद में उनके दो पुत्रियां सरूप [बाद में विजयलक्ष्मी पंडित के नाम से विख्यात] और कृष्णा [बाद में कृष्णाहटी सिंग] पैदा हुई।

विजयलक्ष्मी पंडित ने अपनी आत्मकथा ‘द स्कोप आफ हैप्पीनेस’ में बचपन की यादों को ताजा करते हुए लिखा है कि उनके पिता पूरी तरह से पश्चिमी विचारों और रहन-सहन के कायल थे। उस दौर में उन्चेंने अपने सभी बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा दिलवाई।

विजयलक्ष्मी पंडित के अनुसार उस दौर में मोतीलाल नेहरु आनंद भवन में भव्य पार्टियां दिया करते थे जिनमें देश के नामी गिरामी लोग और अंग्रेज अधिकारी शामिल हुआ करते थे। लेकिन बाद में इन्हीं मोतीलाल के जीवन में महात्मा गांधी से मिलने के बाद आमूलचूल परिवर्तन आ गया और यहां तक कि उनका बिछौना जमीन पर लगने लगा।

मोतीलाल 1910 में संयुक्त प्रांत [वर्तमान में उत्तरप्रदेश] विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। अमृतसर में 1919 के जलियांवाला बाग गोलीकांड के बाद उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी वकालत छोड़ दी। वह 1919 और 1920 में दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ 1923 में स्वराज पार्टी का गठन किया। इस पार्टी के जरिए वह सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली पहुंचे और बाद वह विपक्ष के नेता बने। असेंबली में मोतीलाल ने अपने जबरदस्त कानूनी ज्ञान के कारण सरकार के कई कानूनों की जमकर आलोचना की।

मोतीलाल नेहरु ने आजादी के आंदोलन में भारतीय लोगों के पक्ष को सामने रखने के लिए इंडिपेंडेट अखबार भी खोला। देश की आजादी के लिए कई बार जेल जाने वाले मोतीलाल नेहरु का निधन छह फरवरी 1931 को लखनऊ में हुआ।

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युद्ध राकेट के प्रवर्तक थे टीपू सुल्तान

Posted on 03 May 2009 by admin

नई दिल्ली- मैसूर के शेर के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान को विश्व में युद्ध राकेट का प्रवर्तक माना जाता है। वह योद्धा होने के साथ ही कुशल प्रशासक भी था, जिसने राज्य की भलाई के लिए अनेक कार्य किए।

पूर्व राष्ट्रपति मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम ने 30 नवंबर 1991 के बंगलूर में टीपू सुल्तान शाहीद मेमोरियल व्याख्यान में कहा था, ‘टीपू सुल्तान दुनिया में युद्ध राकेट का प्रवर्तक थे जिसके श्रीरंगापट्टम से बिटिश सेना द्वारा कब्जे में लिए गए दो राकेट अभी भी लंदन के रायल आर्टलरी संग्रहालय में रखे हुए हैं। टीपू की सेना की यही सबसे बड़ी खासियत थी जिसके चलते उसके अधिकतर अभियान सफल रहते थे।’

टीपू ने अपने जमाने में किसानों को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कावेरी नदी बांध की नींव रखी जिस पर बाद में जाकर प्रसिद्ध कृष्णराज सागर बांध का निर्माण हुआ। वह केवल कुशल योद्धा और महान नेता ही नहीं था बल्कि उसने अपने राज्य के व्यापार को श्रीलंका, अफगानिस्तान, फ्रांस, तुर्की और ईरान तक विस्तार कर किया और सड़कों, सरकारी इमारतों और बंदरगाह का निर्माण किया था।

उसके नेतृत्व में मैसूर ने मराठा और निजाम को हराया और वह भारत के उन कुछ शासकों में से था, जिसकी सेना ने ब्रिटिश हथियारों को परास्त किया था।

टीपू को देश को ऐसे शासक के तौर पर याद किया जाता है जिसने अपने राज्य में सिक्के ढलाई, बैकिंग प्रणाली, नया कलैंडर और नाप तौल की नई प्रणाली लागू की थी।

उसका जन्म 10 नवंबर 1750 को बंगलूर जिले के देवनहल्ली में हुआ था। वह पिता हैदर अली की मौत के बाद मैसूर की सत्ता पर बैठा। उर्दू, कन्नड, पारसी और अरबी भाषाओं का ज्ञान रखने वाला टीपू कटट्र मुसलमान था लेकिन उसकी सेना में बहुतायत हिन्दुओं की थी। फ्रांस के अनुरोध पर उसने मैसूर में गिरजाघर बनाने की अनुमति दी थी। टीपू और उसके पिता हैदर अली ने ब्रिटिश के साथ लोहा लेने के लिए अपनी सेना को फ्रांस द्वारा प्रशिक्षित कराया था।

पहले और दूसरे आंग्ल मैसूर युद्ध में उसने अपने पिता की मदद की थी और मंगलौर की संधि में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। हालांकि तीसरे आंग्ल मैसूर युद्ध में वह हार गया था। चौथे आंग्ल मैसूर युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और निजाम की फौज से हार के बाद टीपू सुल्तान की 4 मई 1799 को मौत हो गई।

टीपू सुल्तान एक सूफी बनने की ख्वाहिश रखता था लेकिन अपने पिता हैदर अली की प्रेरणा से वह शक्तिशाली योद्धा और एक महान नेता बना जिसे ‘मैसूर के शेर’ के तौर हमेशा याद किया जाएगा।

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आदि शंकराचार्य ने वेदों की प्रतिष्ठा कायम की थी

Posted on 30 April 2009 by admin

आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध में अद्वैत सिद्धांत को मजबूत बौद्धिक आधार प्रदान करने वाले आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को पुनस्र्थापितकरने में अहम भूमिका निभाते हुए देश भर की यात्रा कर चार मठों की स्थापना की तथा वेदों की प्रतिष्ठा फिर से कायम की थी।आदि शंकराचार्य के समय में बौद्ध एवं जैन धर्म का विशेष प्रभाव हो गया था वहीं हिंदू धर्म कई संप्रदायों में विभाजित हो गया था। एक ओर मीमांसा और सांख्य सिद्धांतों के अनुयायी थे तो दूसरी ओर चार्वाक के अनुयायी भी थे जिन्होंने वेदों को खारिज कर दिया था।

आदि शंकराचार्य ने तमाम संप्रदायों और सिद्धांतों को एक झंडे के नीचे लाने का प्रयास किया और वह काफी हद तक अपने उद्देश्य में कामयाब रहे। उनके प्रयासों से एक ओर हिंदू धर्म मजबूत हुआ वहीं उसकी लोकप्रियता भी बढी। कई विचारकों का मानना है कि वेदांत का जो मौजूदा प्रभाव है, वह उनके प्रयासों का ही फल है। उन्होंने वेदों के अध्ययन की ओर लौटने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों की पैदल यात्रा की थी।

आदि शंकराचार्य के समय बौद्धों का व्यापक प्रभाव था। उस समय बौद्धों का राज था और वैदिक धर्म की स्थिति अच्छी नहीं थी। बौद्धों ने वेदों की निंदा की थी और यह बात आदि शंकराचार्य को पसंद नहीं थी। उन्होंने स्थिति में बदलाव के लिए बौद्धों से शास्त्रार्थ किया और उन्हें पराजित किया।

आदि शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की पुर्नस्थापनाके लिए विभिन्न पीठों के अलावा सात अखाडों की भी स्थापना की जो बौद्धों से मुकाबला कर सकें। इन अखाडों में जूना तथा निरंजनीशामिल हैं। आदि शंकराचार्य ने वैदिक धर्म का उद्धार किया और वेदों की प्रतिष्ठा बहाल की। शंकराचार्य सिर्फ 32साल ही इस धरती पर रहे। इस दौरान उन्होंने आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध में अद्वैत वेदांत का सिद्धांत दिया।

वेदों में ईश्वर को ब्रह्मकहा गया है। इस अद्वैत के आधार पर कालांतर में कई संप्रदायों की स्थापना हुई। उन्होंने श्रृंगेरीशारदा पीठ के अलावा द्वारका,पुरी और ज्योर्तिमयपीठ की स्थापना की तथा भगवतगीताऔर ब्रह्मसूत्रों पर भाष्य भी लिखा। आठवीं सदी में केरल के कलाडीमें पैदा हुए आदि शंकराचार्य जब बहुत छोटे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। माता की देखरेख में उनका पालन पोषण हुआ। बालपन में ही उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से लोगों का चकित कर दिया था।

सिर्फ आठ साल की उम्र में ही वे वेदों के ज्ञाता हो गए थे। आदि शंकराचार्य बचपन में ही संन्यास के प्रति आकर्षित हो गए लेकिन इसके लिए माता की अनुमति लेने में उन्हें काफी मेहनत करनी पडी। कहा जाता है कि महज 32साल की उम्र में ही शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा की और इस यात्रा के दौरान उन्होंने सभी तत्कालीन प्रमुख हिन्दू और बौद्ध विचारकों से शास्त्रार्थ कर न केवल उन्हें पराजित किया बल्कि इस बात के लिए भी संतुष्ट किया कि वेद का अद्वैत सिद्धांत ही ईश्वर को सही ढंग से परिभाषित करने का सबसे उपयुक्त सिद्धांत है।

शंकराचार्य के शास्त्रार्थो में मंडन मिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ सबसे लोकप्रिय हुआ। इसमें उन्होंने मंडन मिश्र को तो पराजित किया लेकिन जब मंडन मिश्र की पत्नी ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी तो शंकराचार्य को इसके लिए कुछ समय मांगना पडा। इसका कारण था कि उन्होंने शंकराचार्य से काम के विषय पर शास्त्रार्थ करने के लिए कहा था जो शंकराचार्य के लिए सर्वथा अपरिचित विषय था।

किवंदन्तियोंके अनुसार शंकराचार्य ने इसके लिए मंडन मिश्र की पत्नी से कुछ समय मांगा। बाद में वह फिर उनके पास गए और उन्हें भी शास्त्रार्थ में पराजित किया। इसके बाद मंडन मिश्र सपत्नीक शंकराचार्य के शिष्य बन गए।

महज 32वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने उन बौद्धिक ऊंचाइयों को छुआ, जिन पर आज भी भारतीय दर्शनशास्त्र गर्व करता है।

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भारतीय सैनिकों ने रचा था इतिहास

Posted on 24 April 2009 by admin

नई दिल्ली। सन 1962 की लड़ाई में चीन के साथ युद्ध में भारतीय सेना को जहां कई मोर्चो पर हार का सामना करना पड़ा, वहीं लद्दाख के चुशूल सेक्टर में उसने शौर्य का ऐसा इतिहास रचा कि तमाम प्रयासों के बावजूद चीनी सैनिक रेजांगला पर कब्जा नहीं कर पाए।

भारतीय सेना के 1962 के युद्ध आंकड़ों के अनुसार चीनी आक्रमण के चलते 24 अक्टूबर 1962 को रेजांगला की सुरक्षा का जिम्मा कुमाऊं रेजीमेंट की चार्ली कंपनी को सौंप दिया गया। भारतीय सैनिक सुरक्षात्मक तैयारियों में लगे थे कि अचानक 18 नवंबर को पौ फटने से पहले चीनी सेना ने रेजांगला पर जबर्दस्त हमला कर दिया। रेजांगला लद्दाख के चुशूल सेक्टर में 18 हजार फुट की बर्फीली ऊंचाई पर स्थित है। वहां पानी भी जम जाता है। मातृभूमि की सीमाओं की रक्षा की जिद ठाने वहां तैनात भारतीय जवानों का लहू नहीं जमा। उन्होंने चीनी सेना का ऐसा मुकाबला किया कि देखते ही देखते चार्ली कंपनी, सात और आठ नंबर प्लाटून तथा मोटर सेक्शन की जबर्दस्त जवाबी कार्रवाई में सैकड़ों चीनी सैनिक ढेर हो गए।

यह जबर्दस्त लड़ाई कई घंटों तक चली। रेजांगला के नाले चीनी सैनिकों की लाशों से भर गए। इस हमले में विफल हो जाने पर चीनियों ने फिर से जबर्दस्त हमला बोला फिर भी वे कामयाब नहीं हुए। इसके बाद चीनियों ने तीसरी बार कई ओर से धावा बोला। कई जगह उन्हें अपने ही सैनिकों की लाशों के ऊपर से गुजरना पड़ा। भारतीय जवान जमकर लड़े। गोला बारूद खत्म हो जाने पर वे अपने मोर्चो से बाहर निकल आए और निहत्थे ही स्वचालित राइफलधारी चीनी सैनिकों से भिड़ गए।

भारतीय सेना के पहलवान सिंहराम ने कई चीनी सैनिकों को चट्टान पर पटक कर मार डाला। घंटों तक चली इस लड़ाई में भारतीय सेना के 114 अधिकारी और जवान शहीद हो गए। इसके बावजूद चुशूल पर चीनी सैनिक कब्जा नहीं कर पाए। बहादुर हवलदार रामकुमार के शरीर में नौ गोलियां लगीं। इसके बावजूद दुश्मन को झांसा देकर वह लुढ़कते-लुढ़कते छह मील की दुर्गम बर्फीली दूरी तय कर अपने बटालियन मुख्यालय पहुंचने में कामयाब हो गए।

बहादुर भारतीय सैनिकों की तुलना में मरने वाले चीनी सैनिकों की तादाद काफी अधिक थी। भारतीयों की बहादुरी को देखकर चीनी सैनिक भी दंग रह गए। जाते-जाते वह हमारे शरीद सैनिकों के पार्थिव शरीरों को सम्मान के साथ कंबलों से ढक गए तथा उनकी संगीनें उनके शरीरों के पास खड़ी कर गए। 11 फरवरी 1963 को 110 रेडक्रास अधिकारियों और भारतीय सेना के जवानों तथा अधिकारियों का दल चुशूल सेक्टर पहुंचा जहां प्रकृति ने बहादुरी के इतिहास को अब भी पूरी तरह सहेज कर रखा था। इसके बाद वहां तत्कालीन सेना प्रमुख टी एन रैना भी पहुंचे। बेहद सर्द इलाका होने के कारण उन्हें लड़ाई के सभी दृश्य सुरक्षित मिले। शहीद भारतीय सैनिकों के शव बर्फ में जम चुके थे, तब भी अपने हथियार थामे हुए थे। यह दृश्य देखकर सेना अध्यक्ष बिलख-बिलख कर रो पड़े।

क्षेत्र से 96 अधिकारियों और जवानों के शव बरामद हुए। बाकी शव अगली कार्रवाई में मिले। मेजर शैतान सिंह का शव उसी समय विमान के जरिए जोधपुर पहुंचाया गया। वहां पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। बाकी शवों का अंतिम संस्कार चुशूल युद्धक्षेत्र में ही कर दिया गया जहां उनकी स्मृति में अब एक स्मारक बना है।

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