Archive | August, 2010

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मनरेगा के तहत10 लाख वंचित परिवारों को रोजगार

Posted on 29 August 2010 by admin

महिलाओं को बराबर का प्रतिनिधित्व

लखनऊ -  उत्तर प्रदेश सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना अन्तर्गत 10 लाख परिवारों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने की रणनीति तैयार की है। इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य अत्यन्त वंचित वर्ग के पांच लाख परिवारों व 5 लाख महिला जॉबकार्ड धारकों अर्थात 10 लाख वंचितों को चिन्हित करते हुए इन्हें 100 दिन का रोजगार वित्तीय वर्ष 2010-11 में उपलब्ध कराना है।

यह जानकारी ग्राम्य विकास, सचिव श्री मनोज कुमार सिंह ने आज यहां दी। उन्होंने बताया कि वंचित वर्ग के लोग न केवल सबसे अधिक अशिक्षित हैं वरन् इनकी मुख्य सम्पत्ति भी प्राय: इनकी श्रम शक्ति ही है। उन्होंने बताया कि एक रणनीति बनाकर मनरेगा के तहत इन अत्यन्त वंचित वर्ग के परिवारों को लक्षित किया जाये तो योजना का सीधा लाभ निर्धनतम तबके के परिवारों को पहुंच सकता है।

श्री सिंह ने बताया कि मनरेगा के अन्तर्गत बुन्देलखण्ड एवं विन्ध्यांचल के जनपदों को छोड़कर प्रदेश के अन्य जनपदों में योजना के तहत महिलाओं की भागेदारी निर्धारित 33 प्रतिशत से बहुत कम है। इस कारण प्रदेश के 26 जनपदों में यह प्रस्तावित किया गया है कि कम से कम 5 लाख महिला जॉबकार्ड धारकों को चिन्हित कर उन्हें योजना के अन्तर्गत काम पर आने के लिए प्रोत्साहित किया जाय।

ग्राम्य विकास सचिव ने बताया कि योजना को लागू करने के लिए सर्वप्रथम लक्षित जनपदों में वंचित परिवारों को चिन्हित कर इनका कम्प्यूटराइज्ड डाटावेस तैयार किया जायेगा। यह कार्य नोडल एजेन्सी तथा इसके द्वारा चयनित सिविल सोसाइटी अर्गनाइजेशन के द्वारा किया जायेगा। उन्होंने बताया कि लक्षित परिवारों को ग्राम पंचायतवार चिन्हित करने के उपरान्त सिविल सोसाइटी अर्गनाइजेशन द्वारा इन्हें प्रोत्साहित कर मनरेगा के अन्तर्गत समूह गठित कर नियत प्रक्रिया के अनुसार काम के लिए आवेदन कराया जायेगा।

श्री सिंह ने बताया कि नोडल एजेन्सी एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था होनी चाहिए और इसका चयन एक समीति द्वारा किया जायेगा। चयन समीति सचिव, ग्राम्य विकास की अध्यक्षता में गठित की गई है। आयुक्त ग्राम्य विकास, निदेशक गिरि इंस्टीट्यूट लखनऊ, निदेशक अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान चित्रकूट तथा उपायुक्त मनरेगा समीति के सदस्य हैं। अपर आयुक्त मनरेगा को समीति का सदस्य सचिव बनाया गया है। श्री सिंह ने बताया कि इस पूरे अभियान और रणनीति के तहत की जा रही कार्यवाही और इसके प्रभाव का मूल्यांकन थर्ड पार्टी द्वारा कराया जायेगा।

श्री सिंह ने बताया कि इस महत्वपूर्ण रणनीति के सम्बन्ध में आवश्यक दिशा-निर्देश प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों/जिला कार्यक्रम समन्वयकों और मुख्य विकास अधिकारियों को भेज दिये गये हैं।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
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महिला अधिकारों सम्बंधी वादों के निस्तारण में समयबद्धता के साथ तेजी लाये - मुख्य न्याय मूर्ति रिबेलों

Posted on 28 August 2010 by admin

लखनऊ  -  आज उत्तर प्रदेश न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान में “राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा´´ महिला आधिकारों एवं उनसे सम्बंधित न्याय “विषय पर दो दिवसीय सिम्पोजियम´´ का आयोजन किया गया।

उक्त अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति एफ0आई0 रिबेलों ने अपने संबोधन में कहा कि महिला अधिकारों एवं उनसे सम्बंधित न्याय के अनेक अधिनियम एवं धाराएं उपलब्ध है उससे सम्बंधित वादों को हमें समयबद्धता के साथ साक्ष्यों के आधार पर निस्तारण में तेजी लाना चाहिए। इसके लिए सिविल न्यायालयों को निर्धारित कार्य योजना बनाना चाहिए। तभी हम वास्तविक रूप से महिलाओं के अधिकारों की रक्षा एवं उनको न्याय दिला सकेंगे। इसके आभव में अधिनियम एवं धाराएं प्रभावी नहीं हो सकती। हमें मानव अधिकार महिला अधिकार को एक पहलू के रूप में आगे बढ़ाना चाहिए। इस मामले में उन्होंने न्यायमूर्ति ए0 के0 सिकरी तथा न्यायमूर्ति अजीत भरिहोक के दिनांक 03.06.2010 के सुश्री वर्षा कपूर बनाम यूनियन आफ इण्डिया के व्यापक आधार वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लेख किया। उक्त अवसर पर न्यायमूर्ति श्री प्रदीप कान्त न्यायमूर्ति श्री ए0के0बसु एवं न्यायमूर्ति श्री ए0 के0 श्रीवास्तव आदि ने विचार व्यक्त किया।

उक्त अवसर पर डा0 रंजना कुमारी  ने सिम्पोजियम के विषय पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम का संचालन सदस्य। सचिव न्यायधीश श्री सुभाष चन्द्र बत्रा ने किया तथा कार्यक्रम का शुभारम्भ दीप प्रज्जवलित कर न्यायमूर्ति गणों द्वारा किया गया। उक्त अवसर पर न्यायिक अधिकारियों के अलावा उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों के महिला अधिकारों सम्बंधी स्वयं सेवी संगठनों ने भाग लिया।

कल दिनांक 29.8.2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सम्मानित न्यायधीशों द्वारा सम्बोधन होगा, जिसमें न्यायमूर्ति श्री प्रदीप कान्त आदि प्रमुख है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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मणिपुर के बच्चे कहाँ जाएं

Posted on 27 August 2010 by admin

मणिपुर में उग्रवाद और उग्रवाद के विरोध में जारी हिसंक गतिविधियों के चलते बीते कई दशकों से बच्चे हिंसा की कीमत चुका रहे हैं। यह सीधे तौर से गोलियों और अप्रत्यक्ष तौर से गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण की तरफ धकेले जा रहे हैं. राज्य में स्थितियां तनावपूर्ण होते हुए भी कई बार नियंत्रण में  तो बन जाती हैं, मगर स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी ढ़ांचे कुछ इस तरह से चरमराए हैं कि बच्चों और मरीजों का विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरना यहां के लिए आम बात लगने लगती है।

इनदिनों हम मणिपुर के इलाकों में यहां के हालातों को समझने की कोशिश कर रहे हैं। क्राई हिंसा से सबसे ज्य़ादा प्रभावित तीन जिलों चंदेल, थौंबल और चुराचांदपुर में काम कर रहा है। क्राई द्वारा यहां जगह-जगह बच्चों के सुरक्षा समूह बनाने गए हैं, और बहु जातीय समूहों में आत्मविश्वास जगाने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। ऐसी ही एक कार्यशाला के बाद क्राई से असीम घोष बता रहे हैं कि ‘‘यहां के बच्चे डर, रहस्य, अनिश्चिता और हिंसा के साये में लगातार जी रहे हैं, यहां जो माहौल है उसमें बच्चे न तो सही तरीके से कुछ सोच सकते हैं, न ही कह, कर या कोई फैसला ही ले सकते हैं. इसलिए कार्यशालाओं के पहले स्तर में हमारी कोशिश बच्चों के लिए सुरक्षित स्थान बनाने की रहती है।’’

मणिपुर में बच्चों को हिंसा के प्रभाव से बचाने के लिए क्राई द्वारा सरकार और नागरिक समूहों से लगातार मांग की जाती रही है।  इनदिनों यह संस्था राष्ट्रीय स्तर पर जैसे कि बच्चों के अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग और संबंधित मंत्रालयों पर दबाव बना रही है कि वह मणिपुर में हिंसा से प्रभावित बच्चों की समस्याओं और जरूरतों को प्राथमिकता दें। अहम मांगों में यह भी शामिल है कि अतिरिक्त न्यायिक शक्तियों से सुसज्जित सेना यह सुनिश्चित करे कि हिंसा और आघातों के बीच किसी भी कीमत पर बच्चों को निशाना नहीं बनाया जाएगा। इसी के साथ ही राज्य में किशोर न्याय देखभाल के प्रावधानों और संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार किशोर न्याय प्रणाली को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाएगा। राज्य के अधिकारियों पर सार्वजनिक सुविधाओं पर निवेश बढ़ाने और अधिकारों से संबंधित सेवाओं जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, बच्चों के लिए आर्ट यानी एंटी रेट्रोविरल थेरेपी और स्कूल की व्यवस्थाओं को दुरुस्त बनाने के लिए दबाव बनाया जा रहा है. दरअसल प्राथमिकता के स्तर पर अधिकारों से संबंधित सेवाओं को दुरुस्त बनाने के दृष्टिकोण को सैन्य दृष्टिकोण से ऊपर रखे जाने की जरूरत है।

मणिपुर में आंतकवाद से संबंधित घातक परिणामों के चलते 1992-2006 तक 4383 लोग भेट चढ़ गए हैं. जम्मू-काश्मीर और असम के बाद मणीपुर देश के सबसे हिंसक संघर्षों का क्षेत्र बन चुका है। अंतर जातीय संघर्ष और विद्रोह की वजह से 1950 को  भारत सरकार ने इस राज्य में एएफएसपीए यानी सशक्त्र बलों के विशेष शक्ति अधिनियम लागू किया। इस अधिनियम ने विशेष बलों को पहली बार सीधे सीधे हमले की शक्ति दी, जो कि सुरक्षा बलों के लिए प्रभावी ढंग से व्यापक शक्तियों में रूपांतरित हो गई। यहां जो सामाजिक सेवाएं हैं, वह भी अपनी बहाली के इंतजार में हैं, जहां स्कूल और आंगनबाड़ियां सही ढ़ंग से काम नहीं कर पा रही हैं, वहीं जो थोड़े बहुत स्वास्थ्य केन्द्र हैं वह भी साधनों से विहीन हैं। प्रसव के दौरान चिकित्सा व्यवस्था का अकाल पड़ा है। न जन्म पंजीकरण हो रहा है और न जन्म प्रमाण पत्र बन रहा है। अनाथ बच्चों की संख्या बेहताशा बढ़ रही है, बाल श्रम और तस्करी को भू मंडलीकरण के पंख लग गए हैं, और बेकार हो गए परिवारों के बच्चे वर्तमान संघर्ष का हिस्सा बन रहे हैं। बच्चों के लिए खेलने और सार्वजनिक तौर पर आपस में मिलने के सुरक्षित स्थान अपना पता बहुत पहले ही खो चुके हैं।

गैर सरकारी संस्थाओं के अनुमान के मुताबिक  मणिपुर में व्याप्त हिंसा के चलते  5000 से ज्यादा महिलाएं विधवा हुई हैं, और 10000 से ज्यादा बच्चे अनाथ हुए हैं। अकेले जनवरी- दिसम्बर 2009  के आकड़े देखें जाए तो सुरक्षा बालों द्वारा 305 लोगों को कथित तौर पर मुठभेड़ में मार गिराए जाने का रिकार्ड दर्ज है। बन्दूकी मगर गैर राजकीय हिंसक गतिविधि में 139  लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है। विभिन्न हथियारबंद वारदातों के दौरान 444 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है। जबकि नवम्बर 2009 तक कुल 3348 मामले दर्ज किए गए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले देखें तो 2007 से 2009 तक कुल 635 मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें 24 हत्याओं और  86 बलात्कार के मामले हैं।  बाल तस्करी का हाल यह है कि जनवरी 2007 से जनवरी 2009 तक अखबारों में प्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर  198 बच्चे तस्करी का शिकार हुए हैं।  बाल श्रम के आकड़ों पर नज़र डाले तो 2007 को श्रम विभाग, मणिपुर द्वारा कराये गए सर्वे में 10329 बाल श्रमिक पाए गए। जहां तक स्कूली शिक्षा की बात है तो सितम्बर 2009 से जनवरी 2010 तक 4 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूलों में हाजिर नहीं हो सके और सरकारी स्कूली व्यवस्था तो यहां जैसे एक तरह से विफल ही हो गई है।

शिरीष खरे

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शिक्षित महिलाओं से ही समाज का विकास

Posted on 27 August 2010 by admin

सुलतानपुर  -  एक शिक्षित महिला दो परिवारों का विकास करती है। जब महिलायें शिक्षित एंव गुणी होगी तभी समाज का समग्र विकास हो सकता है। उ0प्र0 महिला रोजगार परक प्रशिक्षण कार्यक्रम का उदघाट्न करते हुये सस्थां अध्यक्ष राजन चौधरी ने उक्त बातें कही।

विकासखण्ड दूबेपुर के गांव लोहराम में प्रताप सेवा समिति द्वारा फाइल बोर्ड व डिब्बा निर्माण प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। उक्त कार्यक्रम उ0प्र0 महिला कल्याण निगमलखनऊ द्वारा संचालित किया जा रहा है। उदघाट्न कार्यक्रम में सस्था सचिव विजय विद्रोही ने बताया कि 30 महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा रहा है। यह सभी महिलायें बी0पी0एल0 श्रेणी की है, तथा 18 से 35 के आयु वर्ग की है। प्रशिक्षण के उपरान्त महिलाओं को रोजगार हेतु किट एंव 500 रूपये मानदेय के रूप में दिया जायेगा। साथ ही साथ आत्मनिर्भर बनाने के लिये बाजारो में सामनो बिक्रय भी कराया जायेगा। उदघाट्न समारोह में आगनबाड़ी सुपरवाइजर शिवकुमारी, सहायिका सरला श्रीवास्तव, परामर्शदात्री मयंक माघुरी, प्रेमलता, सीमा श्रीवास्तव, मेराज अहमद आदि लोगो ने अपने विचार रखे।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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हि0लै0फे0प्लानिंग ने एड्स की दी जानकारी

Posted on 24 August 2010 by admin

सुलतानपुर -  के0 एन0 आई0 महा विद्यालय सुल्तानपुर मे आशा बहु सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमे हिन्दुस्तान लैटेक्स फेंमली प्लानिगं प्रमोशन ट्रस्ट के तत्वाधान में के0एन0ओ0पी0 एंव स्टाल लगाकर लगभग तीन हजार तक महिला एंव पुरूश स्टाल पर आकर एच0आई0बी0एड्स एवं प्रजनन अंग संक्रमण परिवार नियोजन एवं परिवार कल्याण के विय में जानकारी दी।

जानकारी के दौरान अरविन्द कुमार मिश्र और उनके सहयोगी विरेन्द्र जी के द्वारा यह बताया कि एचआइबी एड्स और प्रजनन अगं सक्रमण से बचने के लिए हर व्यक्ति को कन्डोम का इस्तेमल करना नियमित रूप से बहुत जरूरी है। कन्डोम ही एक एैसा साधन है जो कि परिवार के कल्याण के लिए तेहरी सुरक्षा प्रदान करता है, जो व्यक्ति इस साधन का प्रयोग नियमित रूप से करेगा वह व्यक्ति और उसका परिवार अत्यन्त खुशहाल  होगा।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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Monitoring of NGOs by Independent Agency

Posted on 21 August 2010 by admin

Delhi - The Ministry of Tribal Affairs has entrusted the job of monitoring & evaluation of the Non Governmental Organizations (NGOs) to an Independent Agency. This information was given by Shri. Tushar A. Chaudhary, the Minister of State for Tribal Affairs, in a written reply to a question in Lok Sabha today.

The Ministry releases grants to Voluntary Organizations/ Non-Governmental Organization after obtaining the annual inspection report from the District Collector and recommendation of the “State Committee for Supporting Voluntary Efforts”. In the “State Committee for Supporting Voluntary Efforts” there are three experts/reputed NGOs working in the State to be nominated by the Chairperson of the Committee. The Committee is chaired by the Principal Secretary/ Secretary of State government dealing with the Welfare of Scheduled Tribes.

There is only one case in the notice of the Ministry in which misuse of funds by NGOs in connivance with district official has come to light.

The process has been initiated to recover the grants through State government and black listing the Non Governmental Organization for future grants. The State government has been asked to take action against the concerned District Welfare Officer.

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रोल ऑफ यू0पी0 टूरिज़्म विज-ए-विज ट्रैवल एडवाइजर्स विषय पर कार्यशाला सम्पन्न

Posted on 21 August 2010 by admin

लखनऊ -   पर्यटन एक बहुत बड़ा विषय है। इस क्षेत्र में सफलता हासिल करने के लिये पर्यटन विभाग के लिये जरूरी है कि सम्बंधित अन्य विभागों से अच्छा तालमेल हो ताकि मिल-जुलकर कठिनाइयों को दूर किया जा सके। ´रोल ऑफ यू0पी0 टूरिज्म विज-ए-विज ट्रैवल एडवाइजर्स´ विषय पर पर्यटन भवन, गोमती नगर में पहलीबार आयोजित कार्यशाला में बातचीत के दौरान पर्यटन सचिव श्री अवनीश अवस्थी ने उक्त विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि इस आयोजन के माध्यम से ट्रैवल ट्रेड से एक संवाद कायम करना हमारा मुख्य उद्देश्य है। उन्होंने कहा कि जल्दी ही पर्यटन विभाग की हेल्प लाइन को बनाने का निर्णय लिया जायेगा ताकि देश-विदेश से आने वाले पर्यटक को असुविधा न हो।

कार्यशाला में वाराणसी, आगरा, लखनऊ और कानपुर से आये ट्रैवल एडवाइजर्स ने अपने प्रेजेन्टेशन के माध्यम से शहर की सफाई की ओर ध्यान आकर्षित करवाने का प्रयास किया। वाराणसी टूरिज़्म गिल्ड के प्रेसिडेंट श्री जावेद खान ने कहा कि पर्यटन एक विस्तृत विषय है, इस पर बात करने के लिये हमें पूरे भारत को अपने दिमाग में रखना होगा। उन्होंने कहा कि एक पर्यटक की दृष्टि से यदि हम वाराणसी को देखें तो शहर के विकास से जुड़े सभी विभागों से सम्पर्क स्थापित करते हुये कार्य की दिशा तय करनी होगी। उन्होंने वाराणसी में सड़कों की मरम्मत एवं सफाई की ओर ध्यान आकर्षित कराते हुये कहा कि पंचकोशी परिक्रमा मार्ग का विशेष रूप से विकास किया जाना चाहिये, क्योंकि पर्यटक इसी मार्ग से सारनाथ जाते हैं। उन्होंने बनारस के ट्रैफिक में भी सुधार लाने के सुझाव दिये। श्री जावेद खान ने कहा कि ट्रैवल ट्रेड का जो भी सरकारी कार्यक्रम होगा उसमें वे अपना सहयोग देने के लिये तैयार हैं।

श्री सुनील सत्यवक्ता ने लखनऊ पर अपनी बात शुरू करने से पहले पर्यटन विभाग को धन्यवाद देते हुये कहा कि यह पहला मौका है कि हमें कुछ कहने के लिये आमन्त्रित किया गया है। उन्होंने कहा कि पर्यटक की सुविधा के लिये शहर में यातायात के साधनों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने बड़ा इमामबाड़ा एवं रेजीडेंसी के आस-पास की सड़कों पर सफाई करवाने, बसों के रूकने की व्यवस्था करवाने एवं टूरिस्ट गाइड को प्रत्येक ऐतिहासिक इमारतों में तैनात करने के लिये उपयोगी सुझाव दिये। इसके साथ ही उन्होंने स्थानीय टूर के सम्बंध में भी अपना सहयोग देने के लिये कहा।

उन्होंने रेजीडेन्सी में होने वाले लाइट एण्ड साउण्ड शो को पुन: शुरू करने के लिये कहा। इनके अतिरिक्त अवीक घोष, समीर शर्मा एवं महातिम सिंह ने भी मुख्य विषय पर अपने विचार व्यक्त किये।

इस मौके पर पर्यटन निगम ने जानकारी दी कि पर्यटन सम्बंधी किसी भी आयोजन के लिये पर्यटन भवन का प्रेक्षागृह नि:शुल्क दिया जायेगा। उन्होंने बताया कि ट्रैवेल एजेंट्स के लिये मानक बनाने पर भी विभाग विचार कर रहा है। उन्होंने बताया कि एजेंटों को मानक के अनुसार प्रमाण पत्र दिया जायेगा ताकि पर्यटकों को सुविधा हो। उन्होंने बताया कि विभाग द्वारा ताज महल की वेबसाइट 02 अगस्त को शुरू की गई थी, जिसको अब तक 100543 लोग विजिट कर चुके हैं। इतने कम समय में यह एक बड़ा कीर्तिमान है। उन्होंने कहा कि पर्यटन विभाग अतिथि देवो भव: की भावना के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन के लिये प्रतिबद्ध है।

इस कार्यशाला में मान्यवर कांशीराम पर्यटन प्रबंध संस्थान के निदेशक, श्री अरूण नागरकर के साथ संस्थान के छात्रों ने भी भाग लिया। इसके अतिरिक्त सभी जिलों से आये क्षेत्रीय पर्यटन अधिकारी, पर्यटन विभाग के सभी वरिष्ठ अधिकारी वहॉ उपस्थित थे।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 2

Posted on 10 August 2010 by admin

अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है। तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक

सही है कि पूरे बुंदेलखंड में लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं- लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है। मगर पंचायतों और अधिकारियों का सारा जोर नए कुएं-तालाब खुदवाने पर अधिक रहता है। ऐसा इसलिए होता कि इनमें ठेकेदारों, जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को फायदा होता है। पचपहरा के पूर्व प्रधान और महोबा के किसान नेता पृथ्वी सिंह इस प्रक्रिया को समझाते हैं, ‘मान लीजिए कि लघु सिंचाई विभाग के पास पैसा आया और उसे यह खर्च करना है। तो वे पुराने कुओं की मरम्मत पर खर्च नहीं करेंगे, क्योंकि उसमें बहुत कम खर्च आएगा। वे एक नया कुआं खोदेंगे। इसमें तीन लाख रुपए की लागत आती है। विभाग का मानक अगर 20 फुट का है तो ठेकेदार 20 फुट गहरा कुआं खोद कर चले जाएंगे। उन्हें इससे मतलब नहीं है कि इतनी गहराई पर कुएं में पानी है भी कि नहीं।’

नतीजे सामने हैः फसलें बरबाद हो रही हैं। किसान बदहाल हैं। परिवार उजड़ रहे हैं। इसने इलाके के पुराने गौरवों को भी अपनी चपेट में लिया है। कभी महोबा की एक पहचान यहां उगने वाले पान से भी थी। मगर दूसरी और वजहों के अलावा पानी की कमी के कारण आज शहर से जुड़ी पट्टी में इसकी खेती पूरी तरह से चौपट हो चुकी है और करीब 5 हजार परिवार बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं।

यह बरबादी बहुआयामी है। अभी कुछ साल पहले तक महोबा के ही कछियनपुरवा गांव के 70 वर्षीय पंचा के पास सब-कुछ था। उनके चार बेटों और तीन बहुओं का परिवार अच्छी स्थिति में था। उनके 21 बीघा (करीब तीन एकड़) खेतों ने कभी साथ नहीं छोड़ा था। लेकिन पिछले दस साल में सब-कुछ बदल गया। पहले पानी बरसना कम हुआ, इसके बाद बारी आई फसलों के सूखने की। इतनी लंबी उमर में उन्होंने जो नहीं देखा था वह देखा- गांव के पास से गुजरती चंद्रावल नदी की एक नहरनुमा धारा सूख गई, लोगों के जानवर मरने लगे। घरों पर ताले लटकने लगे। अब तो उनकी बूढ़ी आंखों को किसी बात पर हैरत नहीं होती, पिछले साल ’कुआर’ (अगस्त-सितंबर) में 16 बीघे में लगी अपनी उड़द की फसल के सूखने पर भी नहीं।

दो दिनों से आसमान में बादल आ-जा रहे हैं और धूप न होने का फायदा उठाते हुए वे अपने छप्पर की मरम्मत कर रहे हैं। उनकी उम्मीद बस अब अच्छे मौसम पर टिकी है। जितना उन्होंने देखा और समझा है उसमें पंचायत और सरकार से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। वे बताते हैं, ‘जब फसल सूखी तो हमें बताया गया कि सरकार इसका मुआवजा दे रही है। चार महीने चरखारी ब्लॉक के चक्कर लगाने के बाद मुझे दो हजार रुपए का चेक मिला। यह तो फसल बोने में लगी मेरी मेहनत जितना भी नहीं है। क्या 16 बीघे की उड़द को आप 20 दिनों की मेहनत में उपजा सकते हैं?’

आज उनका घर बिखर-सा गया है। उनके चारों बेटे पंजाब में रहते हैं। दो बहुएं घर छोड़कर किसी और के साथ जा चुकी हैं। उनकी जमीनें अब साल-साल भर परती पड़ी रहती हैं।

हमारे आग्रह पर उनकी पत्नी बैनी बाई शर्माते हुए बारिश या सूखे से जुड़ा कोई गीत याद करने की कोशिश करती हैं, लेकिन शुरू करते ही उनकी सांस उखड़ने लगती है। सांस उखड़ने की यह बीमारी उन्हें लंबे समय से है, जिसका इलाज वे चार साल से सरकारी डॉक्टर के यहां करा रही हैं। उन्हें बारिश के साथ एक अच्छे (लेकिन सस्ते) डॉक्टर का भी इंतजार है जो इस बीमारी को ठीक कर दे। इसके बावजूद कि राशन के कोटेदार ने पिछले सवा दो साल में पंचा को सिर्फ एक बार 20 किलो गेहूं और 2 लीटर मिट्टी का तेल दिया है, और इस बात को भी आठ माह हो चुके हैं, वे पूरी विनम्रता से मुस्कुराते हैं। आप उनकी मुस्कान की वजहें नहीं जानते लेकिन उनमें छिपी एक गहरी पीड़ा को जरूर महसूस कर सकते हैं।

पंचा थोड़े अच्छे किसान माने जा सकते हैं क्योंकि उनके पास करीब तीन एकड़ खेत हैं। लेकिन बुंदेलखंड में एेसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जिनके पास या तो बहुत कम जमीन है या वे भूमिहीन हैं। उनके पास दूसरों के खेतों में काम करने का विकल्प भी नहीं बचा है, क्योंकि खेती का सब जगह ऐसा ही हाल है। तब वे पलायन करते हैं और दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों के निर्माण कार्यों तथा कानपुर के ईंट-भट्ठों में जुट जाते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और पानी के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले और एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब लिखने वाले अनुपम मिश्र इस पर तंज स्वर में कहते हैं, ‘अगर सूखे और अकाल की स्थितियां न होतीं तो राष्ट्रमंडल खेल कैसे होते भला!’

महोबा स्थित एक एनजीओ कृति शोध संस्थान की एक टीम ने जब इस साल फरवरी में जिले के आठ गांवों का दौरा किया तो पाया कि यहां के कुल1,689 परिवारों में से 1,222 परिवार पलायन कर चुके हैं। इनमें से 269 घरों पर ताले लटके हुए थे जबकि 953 परिवारों के ज्यादातर सदस्य दूसरी जगह चले गए थे।

लोगों ने पलायन करने को नियम बना लिया है। वे जून-जुलाई में गांव लौटते हैं और इसके बाद फिर काम की अपनी जगहों पर लौट जाते हैं। उनके गांव आने की दो वजहें होती हैं। वे या तो किसी शादी में शामिल होने के लिए आते हैं या बारिश की उम्मीद में।

बिंद्रावन अभी एक हफ्ते पहले गांव से लौटे हैं। महोबा के खरेला थाना स्थित पाठा गांव के रहने वाले बिंद्रावन पूर्वी दिल्ली में रहते हैं, सीलमपुर के पास गोकुलपुरी के एक छोटे और संकरे-से दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर। उनकी पत्नी फिलहाल थोड़ी बीमार हैं, इसलिए वे थोड़े चिंतित दिख रहे हैं।

99.8% 64% वन खत्म हो चुके हैं। बारिश की कमी के पीछे यह बड़ा कारण है। बुंदेलखंड के सातों जिलों में 10 करोड़ पौधे लगाने की योजना सरकार चला रही है, पर इसकी सफलता पर संदेह जताया जा रहा है वे यहां पिछले 6 साल से हैं और दिल्ली नगर निगम के तहत राजमिस्त्री का काम करते हैं। इससे उन्हें रोज 225 रुपए मिलते हैं। उनकी पत्नी भी कभी-कभी काम करती हैं और उन्हें 140 रुपए मिल जाते हैं। दोनों मिला कर महीने में लगभग सात हजार रुपए कमा लेते हैं।

लेकिन उनके लिए इस आमदनी से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके खर्च का ब्योरा है। वे इस रकम से 1,300 रुपए कमरे और बिजली के किराए के रूप में दे देते हैं। 1,000 रुपए अपने बच्चों की फीस और किताबों पर खर्च होते हैं। 3,000 रुपए हर महीने वे राशन पर खर्च करते हैं। 1,000 रुपए हर माह जेल में बंद उनके एक रिश्तेदार पर खर्च हो जाते हैं। अगर कोई बीमार नहीं पड़ा-जिसकी संभावना कम ही होती है- तो वे महीने में 700 रुपए बचा सकते हैं।

लेकिन यह आमदनी बहुत भरोसे की नहीं है। बारिश के दिनों में काम कई दिनों तक ठप रहता है। बिंद्रावन अपनी आय में कुछ और बचत कर सकते थे, अगर उन्हें राशन की सस्ते दर की दुकान से राशन मिलना संभव होता, दिल्ली में चलने पर गाड़ियों में कुछ कम पैसे देने होते, बीमारी के इलाज पर उन्हें हर महीने एक-दो हजार रुपए खर्च नहीं करने होते और सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी अच्छी होती कि उनमें भरोसे के साथ बच्चों कोे पढ़ाया जा सके। तब वे अपने पिता के सिर से कर्ज का बोझ उतारने में उनकी मदद कर सकते थे। बिंद्रावन ने 7 साल पहले जब गांव छोड़ा तो उनके पिता के ऊपर कर्ज था। उनके पिता पर आज भी कर्ज है, क्योंकि उन्हें अपने 6 बीघे खेतों से उम्मीद बची हुई है।

एक किसान आसानी से अपने खेतों से उम्मीद नहीं छोड़ता। तब भी नहीं जब दस साल से बारिश नहीं हो रही हो और लगातार कर्जे के जाल में फंसता जा रहा हो। लेकिन तब एेसा क्यों है कि उनका भरोसा चुकता जा रहा है?

सुंदरलाल का नाम उस सूची में 62वें स्थान पर है जिसे महोबा के एक किसान नेता और पचपहरा ग्राम के पूर्व प्रधान पृथ्वी सिंह ने 2008 में बनाना शुरू किया था। पिछले पांच सालों में अकेले इस जिले में 62 लोगों ने आत्महत्या की है। बांदा के एक सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र के अनुसार पूरे बुंदेलखंड के लिए यह संख्या 5,000 है। आत्महत्या करने वाले किसानों में सिर्फ भूमिहीन और छोटे किसान ही नहीं हैं, वे किसान भी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति एक समय अच्छी थी और जिनके पास काफी जमीन भी थी। आत्महत्या करने की उनकी वजहों में सबसे ऊपर बैंकों का कर्ज चुका पाने में उनकी नाकामी है। पृथ्वी सिंह कहते हैं, ‘किसान यहां अकसर ट्रैक्टर या पंपिंग सेट के लिए कर्ज लेते हैं। लेकिन जमीन में पानी ही नहीं है,इसलिए प्रायः पंपिंग सेट काम नहीं करता। किसानों के घर में जब खाने को नहीं होता तब बैंक उन्हें अपना कर्ज लौटाने पर मजबूर करते हैं। मजबूरन कई जगह किसान उसे लौटाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेते हैं और एक दूसरे तथा और बुरे जाल में फंस जा रहे हैं।’

बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी हालांकि उतने बड़े किसान भी नहीं हैं। उनके पास करीब 9 बीघा जमीन है। उन्हें ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थी, लेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए 2 लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए। फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत वैसे भी खस्ता थी और ट्रैक्टर ने उनकी आय में कोई वृद्धि नहीं की थी, इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे। आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए। इसके पहले बैंक ने उनसे 1 लाख 25 हजार रु की वसूली का नोटिस जारी किया था। ट्रैक्टर छीने जाने के बाद बैंक ने जब बकाया राशि की रिकवरी का आदेश जारी किया तो तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी। इसमें कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आए। बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर 1 लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था।

दो साल बाद जब सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की तो बुंदेलखंड भी इसमें शामिल था। तिवारी ने इसके लिए आवेदन किया। कुछ ही दिनों बाद तिवारी भी उन सौभाग्यशाली किसानों की सूची में शामिल थे जिनके कर्ज ‘मानवीय चेहरेवाली केंद्र सरकार’ ने माफ किए थे। तिवारी के लिए भले न हो आपके लिए उस रकम के बारे में जानना महत्वपूर्ण हो सकता है। वह रकम थी 525 रुपए।

यह मजाक था। लेकिन तिवारी को इसे सहना पड़ा। उन्होंने अपने साथ हुए इस अपमानजनक व्यवहार के बारे में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखा है। उन्हें हाल ही में कृषि मंत्रालय का जवाब भी मिला है जिसमें कहा गया है कि उनके मामले पर विचार किया जा रहा है।

पुष्पेंद्र कर्ज देने की इस पूरी प्रक्रिया को ही किसानों के लिए उत्पीड़क बताते हैं। उनका कहना है कि किसानों को सहायता के नाम पर ट्रैक्टर के लिए कर्ज थमा दिए जाते हैं जबकि अधिकतर किसानों को न तो ट्रैक्टर की जरूरत होती है न उन्होंने इसकी मांग की होती है। वे इसे बैंक और ट्रैक्टर एजेंसी के लाभों की संभावना से जोड़ते हैं। वे कहते हैं, ‘एक ट्रैक्टर के लिए दिए जाने वाले कर्ज पर बैंक मैनेजर 20 से 40 हजार रुपए, ट्रैक्टर एजेंसी के दलाल 10 से 20 हजार रुपए और ट्रैक्टर एजेंसी 40 से 60 हजार रुपए कमीशन लेते हैं। इस तरह किसान से 1 लाख रुपए तो कमीशन के रूप में ही ले लिए जाते हैं। इस तरह किसान को वह राशि तो अपनी जेब से चुकानी ही पड़ती है, उस पर सूद भी देना पड़ता है, जो उसे कभी मिली ही नहीं।’यह ऐसे होता है कि एजेंसी कर्ज की राशि में ट्रैक्टर के साथ हल-प्लाऊ जैसे अनेक उपकरण भी जोड़ लेती है, लेकिन उन्हें किसानों को दिया नहीं जाता। इसके अलावा कई बार बीमा और स्टांप के नाम पर भी किसानों से नकद राशि ली जाती है। अगर किसान के पास पैसे न हों तो उन्हें एजेंट नकद कर्ज भी देते हैं।

दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की असलियत कर्ज माफी और संस्थागत ऋणों की इस कहानी से अलग नहीं है।
99.8% 75-80% आबादी गांवों से पलायन करती है। यह प्रायः जुलाई-अगस्त में शुरू होता है। इनमें भूमिहीन किसान भी हैं और जमीनवाले भी। इस दौरान गांवों में सिर्फ महिलाएं और वृद्ध रह जाते हैं नरेगा को ही लेते हैं। नरेगा की राष्ट्रीय वेबसाइट पर 2009-10 के लिए हमीरपुर जिले के भमई निवासी मूलचंद्र वर्मा के जॉब कार्ड (UP-41-021-006-001/158) के बारे में पता लगाएं। वेबसाइट बताती है कि 1 मई 2008 से 25 अप्रैल 2010 तक उनको 225 दिनों का काम मिल चुका है। लेकिन मूलचंद्र के कार्ड पर इस पूरी अवधि में सिर्फ 16 दिनों का काम चढ़ा है। हालांकि वे जो ज़बानी आंकड़े देते हैं उनसे साइट के आंकड़ों की कमोबेश पुष्टि हो जाती है। पुष्टि नहीं होती तो भुगतान की गई रकम की। मूलचंद्र का दावा है कि उन्होंने नरेगा के तहत 3 साल में 300 दिनों का काम किया है। उन्हें अब तक 18,300 रुपए का भुगतान किया गया है। वे अपने बाकी 11,300 रुपए के लिए पिछले तीन-चार महीनों से भाग-दौड़ कर रहे हैं। लेकिन यह नहीं मिली है। वे कहते हैं कि प्रधान और पंचायत सचिव उनसे नरेगा के तहत काम करवाते हैं लेकिन उसे जॉब कार्ड पर दर्ज नहीं करते, ‘2008 से लेकर अब तक मैंने 300 दिनों का काम किया है। लेकिन यह मेरे कार्ड पर दर्ज नहीं है। उन्होंने मेरे खाते में रकम जमा भी कराई है, लेकिन जो रकम बाकी है उसका भुगतान वे नहीं कर रहे हैं।’

वे प्रदेश की मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं। लेकिन अब तक उन्हें यह रकम नहीं मिल पाई है। पैसे के अभाव में वे अपनी बीमार बेटी का इलाज तक नहीं करा सके और वह मर गई। इसके उलट भमई की प्रधान उर्मिला देवी बताती हैं, ‘मूलचंद्र झूठ बोल रहे हैं। उन्हें पूरी रकम दी जा चुकी है।’ लेकिन तब भी जॉब कार्ड और उनके अपने आंकड़ों में इतना भारी अंतर बताता है कि कुछ गड़बड़ है। और यह गड़बड़ी ऐसी नहीं है कि इसे खोजना पड़े। यह सतह पर दिखती है। अधिकतर शिकायतें प्रधानों के रवैए को लेकर हैं। वे नरेगा की रकम को कर्ज के रूप में देते हैं और जॉब कार्ड पर काम कराकर उसे ब्याज समेत वसूलते हैं। प्रायः वे अपने नजदीकी लोगों को काम पर रखते हैं। अगर किसी तरह काम मिल जाए तो प्रायः 100 दिनों की गारंटी पूरी नहीं होती। ये सारी धांधलियां इस तरह की जाती हैं कि कोई भी उन्हें पकड़ सकता है। तहलका को उपलब्ध दस्तावेज दिखाते हैं कि साल में सौ दिन से अधिक काम दिए गए हैं और मर चुके लोगों के नाम पर भी भुगतान किए गए हैं।

महोबा जिला हाल के कुछ दिनों में नरेगा में भारी भ्रष्टाचार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा है। शायद यह अकेला जिला है जहां 52 प्रधानों से रिकवरी का ऑर्डर हुआ है। नरेगा के नियमों के तहत जितना खर्च होना चाहिए उससे 20 गुना अधिक खर्च की भी घटनाएं सामने आई हैं। जिले में मुख्य विकास अधिकारी समेत सात बड़े प्रशासनिक अधिकारी नरेगा में भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित हुए हैं।

लेकिन महोबा के मौजूदा मुख्य विकास अधिकारी रवि कुमार के लिए यह बहुत परेशानी की बात नहीं है। वे कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार तो ग्लोबल फिनोमेना है। इसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता। दरअसल, इसमें पंचायतों को इतना पैसा खर्च करने के लिए दे दिया जाता है कि वे समझ नहीं पातीं कि क्या करना है।’ वे चाहते हैं कि पंचायती राज के नियमों की समीक्षा की जाए, क्योंकि इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं।

सवाल कुछ और भी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों की पर्सपेक्टिव नाम की एक टीम अक्तूबर 2009 में बुंदेलखंड गई थी। इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम ने इसे रेखांकित किया है कि नरेगा जैसी योजना, जो सामान्य स्थितियों में गांव के एक सबसे वंचित हिस्से को राहत मुहैया कराने के लिए बनाई गई है, वह ऐसे संकट के समय सारी आबादी को संकट से नहीं उबार सकती।

और ऐसे में जब केंद्र सरकार ने सामरा रिपोर्ट में सिफारिश किए जाने के दो साल की देरी के बाद 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया है, जिसमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे, तो उम्मीद से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। ये चिंताएं बड़ी राशि की प्रधानों और अधिकारियों द्वारा लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह राशि भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी अब तक हमने पढ़ी है।

ये चिंताएं कितनी वाजिब हैं, इनका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पैकेज मिलने के तीन महीने के भीतर मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में11 योजनाएं पूरी कर ली गई हैं और पिछले छह महीने में 36 योजनाओं को पूरा किया गया है। पैकेज गांवों में रोजगार और काम पर कितना सकारात्मक असर डाल रहा है, इसके संकेत के तौर पर हम कुतुब (महाकौशल एक्सप्रेस) से दिल्ली लौटने वालों की भारी भीड़ के रूप में भी देख रहे हैं। योजनाएं तेजी से पूरी हो रही हैं, उस समय भी जब लोग गांवों में नहीं हैं। वे काम की अपनी पुरानी जगहों पर लौट रहे हैं।

इसीलिए रामकली को उम्मीद नहीं है कि यह पैकेज उनकी कोई मदद कर सकता है। वे कानपुर में ईंट भट्ठे पर अपने बेटे और बहू के पास जाने की सोच रही हैं।

सिराज केसर
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नरेगा और जल संरक्षण

Posted on 10 August 2010 by admin


पानी-पर्यावरण के देशी वैज्ञानिक

Posted on 10 August 2010 by admin

भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन स्कूली तालीम और डिग्री को ही ज्ञान का आधार मानने की वजह से तमाम शिल्पकारों, हुनरमंदों और किसानों को अज्ञानी और अकुशल मान लिया गया है। यही वजह है कि देशी तकनीक और स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को नकार दिया जाता है जो ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणाली को बचाने वाले होते हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय इन्हीं देशी तकनीकों से ही संभव है।

आजादी के पहले प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजम, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस, जैसे वैज्ञानिक पैदा हुए। आजादी के बाद एक भी बड़ा वैज्ञानिक देश में नहीं हुआ, जबकि इस बीच भारतीय संस्थान संसाधन, तकनीक के स्तर पर समृद्ध हुए हैं। जाहिर है कि ज्ञान-पद्धति में गहरा खोट है।

दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने के लिहाज से भारत तीसरे स्थान पर है। लेकिन विज्ञान संबंधी साहित्य सृजन में पश्चिमी लेखकों का बोलबाला है।

पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविष्कारों से ही यह विज्ञान साहित्य भरा पड़ा है। इसमें न तो भारत के आविष्कार कहीं दिखते हैं और न उनके आविष्कारक। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हम खुद न तो अपनी खोजों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा बर्ताव भी अभद्र होता है। अखबारों के पिछले पन्नों पर कभी-कभार ऐसी खोजों की खबरें छप जाती हैं।

उत्तरप्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी संबंधित अधिकारियों को दी। सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार। आखिरकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रुपए में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी। रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तारण के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है।

इसके बाद रामपाल ने एक हेलिकॉप्टर भी बनाया। लेकिन उसकी चेतना को विकसित करने की बजाय उसे कानूनी पचड़ों में उलझा दिया गया। अपने सपनों को साकार करने के फेर में घर गिरवी रखने वाला रामपाल अब गुमनामी के अंधेरे में है।

बिहार के मोतिहारी के मठियाडीह में रहने वाले सइदुल्लाह की खोज किसी करिश्मे से कम नहीं है। उन्होंने जल के तल पर चलने वाली साइकिल बनाने का कारनामा कर दिखाया। उनके इस मौलिक सोच की उपज यह थी कि उनका गांव हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है। नतीजतन लोग जहां की तहां लाचार अवस्था में फंसे रह जाते हैं। सइदुल्लाह इस साइकिल का सफल प्रदर्शन 1994 में मोतिहारी की मोतीझील में, 1995 में पटना की गंगा नदी में और 2005 में अमदाबाद में कर चुके हैं। इसके लिए उन्हें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने सम्मानित और पुरष्कृत भी किया था।

इससे उत्साहित होकर सइदुल्लाह ने पानी पर चलने वाले रिक्शे का भी निर्माण कर डाला। यह रिक्शा पानी पर बड़े आराम से चलता है। पुरस्कार की सारी राशि नए अनुसंधान के दीवाने इस वैज्ञानिक ने रिक्शा निर्माण में लगा दी। बाद में नए अनुसंधानों के लिए सइदुल्लाह ने अपने पुरखों की जमीन भी बेच दी और चाबी वाले पंखे, पंप, बैटरी-चार्जर और कम ईंधन खर्च वाले छोटे ट्रैक्टर का निर्माण करने में सारी जमा पूंजी खर्च कर दी। लेकिन न तो उन्हें सरकारी मदद मिली और न ही उनकी खोज को मान्यता। उनका हौसला पस्त हो गया। एक नवाचारी वैज्ञानिक को डॉ. कलाम के पुरस्कार के बावजूद अफसरशाही ने कोई जगह नहीं दी। सईदुल्लाह ने नई खोजों से तौबा कर ली।

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के भैलोनी लोध गांव के रहने वाले मंगल सिंह ने ‘मंगल टर्बाइन’ बना डाला है। यह सिंचाई में डीजल और बिजली की कम खपत का बड़ा व देशी उपाय है। मंगल सिंह ने अपने इस अनूठे उपकरण का पेटेंट भी करा लिया है। यह चक्र उपकरण-जल धारा के प्रवाह से गतिशील होता है और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और चारा-कटाई मशीन आसानी से चल सकती है।

इस चक्र की धुरी को जेनरेटर से जोड़ने पर बिजली का उत्पादन भी शुरू हो जाता है। अब इस तकनीक का विस्तार बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो हो ही रहा है, उत्तराखंड में भी इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है। पहाड़ पर पेयजल भरने की समस्या से छूट दिलाने के लिए नलजल योजना के रूप में इस तकनीक का प्रयोग सुदूर गांव में भी शुरू हो गया है।

उत्तर प्रदेश के गोंडा के सेंट जेवियर्स स्कूल के छात्र ऋषींद्र विक्रम सिंह, अजान भारद्वाज, निखिल भट्ट और हिदायतुल्ला सिद्दीकी ने मिलकर दीमक से बचाव का स्थायी समाधान खोज निकालने का दावा किया है। इन बाल वैज्ञानिकों ने इस कीटनाशक का बाल विज्ञान कांग्रेस में प्रदर्शन भी किया।

इन छात्रों ने ‘विज्ञान कांग्रेस’ के बैनर तले गोंडा जिले में एक अध्ययन में पाया कि भारत-नेपाल तराई क्षेत्र में दीमकों के प्रकोप से हर साल पैदावार का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। दीमकों पर नियंत्रण के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला रसायन क्लोरो पाईरीफास दीमकों पर प्रभावी नियंत्रण में नाकाम साबित हो रहा है। साथ ही इसका इस्तेमाल मिट्टी के परितंत्र को भी खत्म कर देता है जिससे जमीन की उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसके इस्तेमाल से किसानों के मित्र कीट (केंचुआ आदि) भी नष्ट हो जाते हैं।

इन बाल वैज्ञानिकों ने कीटनाशी कवक बवेरिया वैसियाना के प्रयोग से दीमकों की समस्या से स्थायी समाधान की खोज की है। रसायन रहित कवक होने के कारण बवेरिया वैसियाना सभी तरह के दुष्प्रभावों से मुक्त है। इसके एक बार के प्रयोग से खेत में छह इंच नीचे बैठी अंडे देने वाली रानी दीमक कनुबे समेत खत्म हो जाती है। नतीजतन इनके भविष्य में फिर से पनपने की संभावना खत्म हो जाती है। यह कवक दूसरे रसायनों से ज्यादा असरदार और सस्ता होने के कारण बेहद फायदेमंद है। इसकी उपयोगिता साबित हो जाने के बावजूद इस बाल अनुसंधान को अभी तक मान्यता नहीं मिली है।

मध्य-प्रदेश में एक ओर बिजली को लेकर हाहाकार मचा है, वही गुना जिले में बरौदिया नाम का एक जैसा अनूठा गांव भी है, जिसने ऊर्जा के क्षेत्र में इतनी आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है कि अब यहां कभी अंधेरा नहीं होता। यह करिश्मा बायोगैस तकनीक अपनाकर हुआ है। यहां के लोग बायोगैस से अपने धरों को रोशन कर ही रहे हैं, साथ ही महिलाएं चूल्हे चौके का सारा काम भी इसी गैस से कर रही हैं। तकरीबन सात सौ की आबादी वाले इस गांव के ग्रामीण गोबर गैस को रोशनी और रसोई में ईंधन के रूप में उपयोग करते है। साथ ही जैविक खाद बनाकर फसल भी ज्यादा पैदा कर रहै हैं।

गोबर गैस संयंत्र स्थापित होने के कारण वन संपदा पर भी दबाव कम हुआ है। गांव में करीब पचास गोबर गैस संयंत्र स्थापित कर ग्रामीण ऊर्जा के क्षेत्र में स्वावलंबी हुए हैं। इस सफल प्रयोग ने मवेशियों की महत्ता भी उजागर की है। गांव के सरपंच कल्याण सिंह का कहना है कि जब वे अन्य गांवों में जाते हैं तो उन्हें उस गांव को बिजली समस्या से जूझते देखकर अपने गांव पर गर्व होता है। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए सरकार और कृषि विभाग ने कोई मदद नहीं की।

जरूरत है नवाचार के इन प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की। इन्हीं देशी विज्ञान-सम्मत टेक्नोलॉजी की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता मिलने की राह में प्रमुख बाधा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। तालीम की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग और विश्लेषण की छूट की बजाय तथ्यों आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही है, जो वैज्ञानिक चेतना और नजरिए को विकसित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है। ऐसे में जब विद्यार्थी विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने लायक होता है तब तक रटने-रटाने का सिलसिला और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण करने का दबाव, उसकी मौलिक कल्पना शक्ति का हरण कर लेते हैं। सवाल उठता है कि विज्ञान शिक्षण में ऐसे कौन से परिवर्तन लाए जाएं जिससे विद्यार्थी की सोचने-विचारने की मेधा तो प्रबल हो ही, वह रटने के कुचक्र से भी मुक्त हो? साथ ही विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद शैक्षिक उपाधि से नवाजने और सीधे वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान हों।


सिराज केसर
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